Tuesday 12 June 2012


उधार 


क़र्ज़ मैंने कभी लिया नहीं I


पढ़ा था-
करना चाहिए धरती का क़र्ज़ अदा
करो देश का क़र्ज़ अदा 
माँ का क़र्ज़ चुकाया नहीं जा सकता
परिवार के कर्जदार हैं हम 
दोस्तों का क़र्ज़ है हम पर 
जिस किसी ने दिया तिनके का सहारा
कहीं कभी
जिसने भी ली खोज-खबर
पूछा हाल
बैठने दिया अपने पास
की दो बात
क़र्ज़ है उन सब का हम पर I

यह सब जान कर भी 
नहीं जान पाया 
कैसी होती है
क़र्ज़ न अदा कर पाने की तड़प
क्योंकि
क़र्ज़ माँगा ही कहाँ था मैंने 
लिया ही नहीं मैंने कभी 
किसी से उधार !



कांच पार 


दिल्ली है !

मै कार के भीतर हूँ 
खिड़की का कांच चढ़ा है 
बाहर भीख मांगती एक माँ है 
अपने बच्चे को गोद में लिए 
बच्चा फटी आँखों से मुझे देख रहा है
और माँ 
पथराई हुई उम्मीद से I


दिन हुए दिल्ली में 
अब मै खिलंदड़ा हो गया हूँ...
इन्हें देख छोभ में आने, लजाने 
आँखे न मिला पाने से 
आगे निकल गया हूँ...

अब तो इन्हें देख 
मोबाईल के टू मेगा पिक्सल कैमरे से 
उतारने लगता हूँ
माँ-बेटे का फोटू !

पथराई उम्मीद का फोटू
फटी आँखों का फोटू
अपनी गैरत का फोटू
अपनी आत्मा का फोटू

अपनी इन निजी तस्वीरों के सहारे 
टटोलता हूँ अपने देश की तस्वीर
और ऐसा करते हुए 
खुद को
देश के निर्माताओं में  
शामिल न करने की
सदाशयता के चक्कर 
में नहीं पड़ता I



वार 


ये प्रेम की जंग है 
सिर्फ प्रेम से जीती जा सकती है I


किसी और हिकमत से नहीं I

हर जंग 
प्रेम की जंग है I



तिरंगा

न तो 26 जनवरी है
और न 15 अगस्त I

पडोसी ने अपनी छत पर 
ऊंचा भव्य तिरंगा फहराया है I

हालाँकि, छुप कर, सैल्यूट कर आया हूँ
कई बार निहार आया हूँ
खिड़की से, पेड़ों को डोलता देख
भागता हूँ बाहर

पर न जाने क्यों 
इस सीधे-सादे  भले-से पडोसी को लेकर 
अनेक शंकाएं जाग उठी हैं

सरकारी मामला है कुछ !
किस दल में गया ?
किसी आयोग का मुखिया बन गया  हो शायद !
जुटेगी भीड़ रोज़ 
हल्ला होगा
अब ठीक से पेश आएगा या नहीं   
 !!





मृत्यू

हमारा किया हर काम 
या तो पक्ष में 
या विपक्ष में है 
मृत्यू के I

हम रोज़ मृत्यू से दो-चार होते हैं I
रोज़ हमको घेरती है मृत्यू I

हमारी जिजीविषा लडती है रोज़ I
हमारा उत्साह लड़ता है I
हमारा दिल-दिमाग-खून
रेशा-रेशा हमारा लड़ता है 
मृत्यू के खिलाफ I

मृत्यू के हज़ार-हज़ार हाथों से 
लड़ते हैं हम I
छण-छण I

मृत्यू हमको सीधे नहीं मारती I
मृत्यू इकहरी नहीं होती I

मृत्यू चलती है हज़ार चालें I

मृत्यू हमको मारने से पहले
हमको राज़ी करती है मरने के लिए I

हमारा जोड़ा 

हमने एक-दूसरे में देखे 
तमाम विरोधाभास 
एक साथ नहीं चल सके I

हमारे मूल्य एक हैं
मेयार हैं अलग 
अलग-अलग है हमारी राह
हमारा जोड़ा नहीं बन सका I

हम एक दूसरे से करते हैं प्रेम I
जिसे कहते हैं प्रेम
किसी और से नहीं कर सकते कभी I

अब भी
मन ही मन 
एक-दूसरे से कहते हैं हम
- आई लव यू वेरी मच I

एक दूसरे के बिना 
नहीं जी रहे हैं हम I


तुम आओ, मेरी चाँद


मेरी चाँद...

बहुत सारे शहर
तुम्हे याद करने की यादों से भरे हैं
नदियाँ और उनकी ओर जाती नदियाँ तमाम...

जैसे
हरिद्वार
गंगा और उसके घाट
श्रीनगर की धूप, चौराहे
अमरनाथ की सुनहरी बर्फ
मेरे माथे से लगी एटा की धूल
महेंद्र नगर के चौड़े बाज़ार का सूनापन
संभलपुर की डरावनी रात
पुरी के तट पर तुम्हारे नाम को समेट कर ले जाती लहरें
देवबंद की गलियों की भटकन
बनारस का सबकुछ
इलाहाबाद की लू
लखनऊ की तपिश
दिल्ली की खटास
चंडीगढ़ की हवा
पानीपत के नाले
बागेश्वर की सरयू...

चन्द्रमा हर बार तुम्हारे दूर होने को असह्य बनाता है...
तुम्हे याद करने की यादों से भर चुका है मेरा जहाँ ....
तुम आओ मेरी चाँद ...

अपनी यादों को बेदखल करने
उनमे नया अर्थ भरने
अपने दोनों हाथों से मुझे थाम लेने के लिए...

मेरी चाँद...



आज भी अपनी कवितायेँ कहीं प्रकाशित देख के पहले-पहल जैसी ही ख़ुशी होती है... यहाँ ढेर सारी कवितायेँ प्रकाशित करके खुश होने जा रहा हूँ.... आप समय देते तो पाठ करके सुनाता.... पर अब कहाँ वो कटरा में  पीपल वाली गली का लॉज और उसके तिमंजिले पे अजय गिरी का अकेला कमरा....कहाँ वो अंशुल, प्रियंवद, अलोक गुप्ता, सुधीर सिंह, बोधी, छछूंदर, आनंद खून , अमर, अनय .....कहाँ वो हाथ से बनी हिस्से की सिर्फ तीन -तीन गरम मोटी रोटी...टमाटर-आलू की सब्जी... और मेरा कविता-पाठ... क्या आछे दिन सच में पाछे गए... अभी कल की तो बात है...दस साल पहले की...



" दूसरी यात्रा " की कवितायेँ  -

1.  सुबह का गीत 

2.   मृत्यू 

3.  हमारा जोड़ा

4.  तुम आओ, मेरी चाँद 

5.    वार  

6.   तिरंगा

7.    उधार     

8.     मोटा उधार

9.   कांच पार



सुबह का गीत 


सुबह उठो  

लगभग अपनी पसंद का सूरज  
गढ़ने के लिए 
देखो 
सच का 
लाल सूरज

सूर्य तुम्हें नमस्कार !

दिन के कोरे प्रष्ठ पर
अवतरित होती 
अपनी किसी रचना 
के प्रसवोल्लास में
शामिल होने के लिए 
उठो !


समय ने फिर किया है अपना काम
आज रात सोते समय 
तुम्हारी देह पर 
उभर आया है एक और निशान
अगर तुम देह भर नहीं हो
तो उठो
देखो उसके दुःख. समझो.

असह्य पवित्रता है 
ख़ुशबू है, रोमांच है
सुबह की इस प्यारी हवा में 
देह के रोम-रोम में छिपे दैत्यों का
वध करने जैसी कोई चीज़ है
ठंडी,  कत्लकारी
जिससे डरे हुए हैं हम 
या
हमारी देह में छिपे दैत्य 
जो
हमें जकड कर रखते हैं
सुबह 
उठने नहीं देते.

अपनी देह को 
रणभूमि होते हुए 
देखने के लिए
उठो !


क्या तुम नहीं  देखोगे  !

तुम्हारे भाई 
तुम्हारा मकान बनाने के लिए
ईंट उठाने से पहले 
नहा रहे हैं 
ठंडे पानी से. 
कुछ तराई कर रहे हैं.
सड़क पर 
बच्चे खेल रहे हैं.
और
तुम्हारे बारजे तक 
आ रही है
उनकी गर्म सांसें !

प्राणायाम के बहाने 
मैं ले रहा हूँ उनकी आंच
अपने भीतर.

                




मोटा उधार


फ्रेम दर फ्रेम
दो दशक बीत गए...इ

देखते ही देखते
हाथ से
हालांकि ज़बरदस्त मोल-तोल के साथ
करीब बीस वर्ष खर्च हो गए...

हर तीन वर्ष पर
एक उम्र जी लेने का अहसास होता है
मुझे...!!!
सात जन्मों से 
सोच रहा हूँ
आखिर क्यों नहीं
तन कर खड़ा हूँ अपने साथ ?

सिर्फ उपरोक्त सवाल
ही बचता है 
हर जन्म के बाद,
जैसे बचता हो कोई मोटा उधार 
किसी के मरने के बाद
उसकी 
संपत्ति की जगह इ

अपने साथ भी
- बेहयाई निरंतर !!

घी, गुड, तेल, पनीर, शीरे आदि-आदि के
एक अजीब चिपचिपे रसायन के दलदल 
के भीतर से आ रहे
किसी कामुक खिंचाव से 
अवश हो...
अपने साथ भी
- क्रूर धोखे !!!

अपने साथ ही
- अहम के छुद्र टकराव नित्य !

( शेष सब सबल लोगों के आगे तो अब 
  समर्पण भी कर चुका हूँ
  अपने अह्मों का I
  कि
  नुकसान अब सह्य नहीं है मुझको...
  कैसा भी )

दुनिया का कहा इतना ज्यादा मानना पड़ता है
कि अब
सिर्फ अपनी आवाज़ को दबा कर ही 
बॉस होने कि संतुष्टि मिलती है I

अपनी अंतश्चेतना के आदेशों को नकार के ही
अपना मालिक आप होने की
ठसक पूरी होती है I










Sunday 10 June 2012

कुछ भी अच्छा होते हुए देखता हूँ तो ख़ुशी के चार आंसू आ जाते हैं... इनमें दो अपनी भूमिका न होने के कारण भी होते हैं..