Tuesday 12 June 2012


आज भी अपनी कवितायेँ कहीं प्रकाशित देख के पहले-पहल जैसी ही ख़ुशी होती है... यहाँ ढेर सारी कवितायेँ प्रकाशित करके खुश होने जा रहा हूँ.... आप समय देते तो पाठ करके सुनाता.... पर अब कहाँ वो कटरा में  पीपल वाली गली का लॉज और उसके तिमंजिले पे अजय गिरी का अकेला कमरा....कहाँ वो अंशुल, प्रियंवद, अलोक गुप्ता, सुधीर सिंह, बोधी, छछूंदर, आनंद खून , अमर, अनय .....कहाँ वो हाथ से बनी हिस्से की सिर्फ तीन -तीन गरम मोटी रोटी...टमाटर-आलू की सब्जी... और मेरा कविता-पाठ... क्या आछे दिन सच में पाछे गए... अभी कल की तो बात है...दस साल पहले की...



" दूसरी यात्रा " की कवितायेँ  -

1.  सुबह का गीत 

2.   मृत्यू 

3.  हमारा जोड़ा

4.  तुम आओ, मेरी चाँद 

5.    वार  

6.   तिरंगा

7.    उधार     

8.     मोटा उधार

9.   कांच पार



सुबह का गीत 


सुबह उठो  

लगभग अपनी पसंद का सूरज  
गढ़ने के लिए 
देखो 
सच का 
लाल सूरज

सूर्य तुम्हें नमस्कार !

दिन के कोरे प्रष्ठ पर
अवतरित होती 
अपनी किसी रचना 
के प्रसवोल्लास में
शामिल होने के लिए 
उठो !


समय ने फिर किया है अपना काम
आज रात सोते समय 
तुम्हारी देह पर 
उभर आया है एक और निशान
अगर तुम देह भर नहीं हो
तो उठो
देखो उसके दुःख. समझो.

असह्य पवित्रता है 
ख़ुशबू है, रोमांच है
सुबह की इस प्यारी हवा में 
देह के रोम-रोम में छिपे दैत्यों का
वध करने जैसी कोई चीज़ है
ठंडी,  कत्लकारी
जिससे डरे हुए हैं हम 
या
हमारी देह में छिपे दैत्य 
जो
हमें जकड कर रखते हैं
सुबह 
उठने नहीं देते.

अपनी देह को 
रणभूमि होते हुए 
देखने के लिए
उठो !


क्या तुम नहीं  देखोगे  !

तुम्हारे भाई 
तुम्हारा मकान बनाने के लिए
ईंट उठाने से पहले 
नहा रहे हैं 
ठंडे पानी से. 
कुछ तराई कर रहे हैं.
सड़क पर 
बच्चे खेल रहे हैं.
और
तुम्हारे बारजे तक 
आ रही है
उनकी गर्म सांसें !

प्राणायाम के बहाने 
मैं ले रहा हूँ उनकी आंच
अपने भीतर.

                




मोटा उधार


फ्रेम दर फ्रेम
दो दशक बीत गए...इ

देखते ही देखते
हाथ से
हालांकि ज़बरदस्त मोल-तोल के साथ
करीब बीस वर्ष खर्च हो गए...

हर तीन वर्ष पर
एक उम्र जी लेने का अहसास होता है
मुझे...!!!
सात जन्मों से 
सोच रहा हूँ
आखिर क्यों नहीं
तन कर खड़ा हूँ अपने साथ ?

सिर्फ उपरोक्त सवाल
ही बचता है 
हर जन्म के बाद,
जैसे बचता हो कोई मोटा उधार 
किसी के मरने के बाद
उसकी 
संपत्ति की जगह इ

अपने साथ भी
- बेहयाई निरंतर !!

घी, गुड, तेल, पनीर, शीरे आदि-आदि के
एक अजीब चिपचिपे रसायन के दलदल 
के भीतर से आ रहे
किसी कामुक खिंचाव से 
अवश हो...
अपने साथ भी
- क्रूर धोखे !!!

अपने साथ ही
- अहम के छुद्र टकराव नित्य !

( शेष सब सबल लोगों के आगे तो अब 
  समर्पण भी कर चुका हूँ
  अपने अह्मों का I
  कि
  नुकसान अब सह्य नहीं है मुझको...
  कैसा भी )

दुनिया का कहा इतना ज्यादा मानना पड़ता है
कि अब
सिर्फ अपनी आवाज़ को दबा कर ही 
बॉस होने कि संतुष्टि मिलती है I

अपनी अंतश्चेतना के आदेशों को नकार के ही
अपना मालिक आप होने की
ठसक पूरी होती है I










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